Sunday 12 October 2014

ATUL DODIYA


अतुल डोडिया : मिथक और समकालीनता

वेदप्रकाश भारद्वाज

अतुल डोडिया ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने अपनी प्रत्येक नयी प्रदर्शनी और प्रत्येक नयी श्रृंखला से प्रेक्षकों को चैंकाया है, अपने विषयों को लेकर और तकनीक को लेकर भी। कैनवस और कागज जैसे परम्परागत माध्यमों के अलावा वे ऐसी सतहों पर भी काम करते रहे हैं जिनके बारे में पहले कोई सोचता नहीं था। उदाहरण के लिये हम उनकी दुकानों के शटर पर की गयी पेंटिंग को ले सकते हैं। उनकी प्रत्येक श्रृंखला ऐसी है कि उस पर अलग से बात करने की आवश्यकता है। किसी एक लेख में उनकी कला यात्रा पर बात करना न्यायोचित नहीं होगा। इसीलिये इस लेख में मैं केवल उन चित्रों की बात करूंगा जो सिंगापुर में रचे गये और फिर कई जगह प्रदर्शित किये गये। उन्होंने सिंगापुर की हैंडमेड पेपर की फैक्टरी में वहां के कामगारों के साथ मिलकर तैयार किये थे। 2006 में सिंगापुर टेलर प्रिंट इंस्टीट्यूट में और उसके बाद दिल्ली की बोधी आर्ट गैलरी में इन कामों को प्रदर्शित किया गया था। 


2005 में अतुल डोडिया ने सिंगापुर में सिंगापुर टेलर प्रिंट इंस्टीट्यूट (एसटीपीआई) में रहकर एक प्रयोग किया। एसटीपीआई हैंडमेड पेपर बनाने के लिए विख्यात है। अतुल ने वहां एक छापा कलाकार और एक कागज निर्माण के विशेषज्ञ के साथ मिलकर काम किया और सामने आयी उनकी नयी कृतियां जो एक तरफ विषय और रूपाकारों की दृष्टि से उनके बहुत से पुराने कामों के साथ सातत्य प्रकट करती है वहीं तकनीक के रूप में हमारे सामने उनका एक नया रूप आता है। (द वेट स्लीवस् ऑफ माय पेपर रोब, सबरी इन हर यूथ आफ्टर नंदलाल बोस) शीर्षक से हुई इस प्रदर्शनी में शामिल काम सबरी के मिथक को समकालीनता प्रदान करते हैं। रामायण काल की सबरी जैसे आज भी अपने जीवन का सारत्व पाने के लिए भटक रही है। देखा जाए तो सबरी सिर्फ एक मिथकीय पात्र नहीं है, वह समाज के वंचितों की, हाशिये पर कर दिये गये लोगों की प्रतिनिधि है। ये वंचित और हाशिये के लोग आज भी मौजूद हैं, किसी काल में, ईश्वर की उपस्थिति या अनुपस्थिति से उनकी स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ता। अतुल के काम में जो रीढ़ की हड्डी है, जो चक्की है वह जीवन के केवल पिसते जाने की प्रतीक बन जाती है। एक चित्र में सबरी चक्की में अपनी अंगूठियां डाल ही है। एक आदिवादी स्त्री के पास अंगूठियां भला कहां से आयीं, पर उसकी अंगूठियां उसकी आकांक्षाएं हैं जिन्हें वह जीवन की चक्की में निरंतर पीसती रहने के लिए अभिशप्त है।


अब तक प्रेक्षक अतुल के जिस रूप से परिचित रहे हैं उसमें जलरंग पर उनके असाधारण अधिकार और तैलरंग की दक्षता रही है। विषयों को लेकर उनके यहां हमेशा विविधता रही है। सिनेमा की मशहूर छवियों के अलावा वे अन्य लोकप्रिय छवियों और अपने से पहले के कलाकारों के कामों को लेकर भी प्रयोग करते रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने इंस्टालेशन भी किये हैं। जब उन्होंने पहली बार दुकानों में प्रयोग किये जाने वाले शटर को पेंट किया जिसकी प्रदर्शनी दिल्ली की रवींद्रभवन कला दीर्घा में भी लगी थी तो लोग चैंके थे। पर सबरी को लेकर उनकी नयी श्रृंखला इस तरह चैंकाती नहीं है अलबत्ता अपने विषय और उसके प्रयोग प्रस्तुति को लेकर जरूर एक सुखद आश्चर्य से भर देती है। (द वेट स्लीवस् ऑफ माय पेपर रोब, सबरी इन हर यूथ: आफ्टर नंदलाल बोस) शीर्षक एक बारगी चैंकाता है। एक तरह से मूल शीर्षक में अमूर्तन है तो पूरक शीर्षक में एकदम स्पष्टता। अपने आरंभिक कला जीवन में अतुल ने कुछ स्थिर जीवन और भूदृश्य रचे थे जिनमें पर्याप्त अमूर्तन था परंतु उसके बाद उन्होंने अमूर्तन को बहुत तरजीह कभी नहीं दी। अक्सर उन्होंने अपने विषय को स्पष्ट करने वाले रूपांकन ही किये। परंतु इस श्रृंखला में शीर्षक के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा है जिसे अमूर्तन की श्रेणी में रखा जा सकता है। परंतु उस तरह का अमूर्तन नहीं जिस तरह का अमूर्तन गायतोंडे, रामकुमार या अन्य कलाकारों में मिलता है। यहां आकृतियां हैं, रेखांकन भी हैं  परंतु अपने पूरे संयोजन में चित्र आकृतिमूलकता के साथ-साथ एक अमूर्तन की यात्रा पर भी निकला जान पड़ता है। यहां यात्रा शब्द का उल्लेख विशेष कारण से किया गया है। प्रत्येक कलाकृति की अपनी एक यात्रा होती है जो किसी एक अर्थ और संदर्भ से परे होती है। उनमें अर्थों और संदर्भों की अनंत संभावनाएं होती हैं। अतुल की इस श्रृंखला के साथ भी कुछ- कुछ ऐसा ही है। यदि इन चित्रों को हम सबरी के संदर्भ से अलग रखकर देखें तो उनमें हमें अर्थों की अनेक छवियां मिल जाएंगी। प्रेक्षक किसी भी अर्थ का सिरा पकड़ कर अपनी यात्रा पर निकल सकता है। अतुल की इस श्रृंखला की यह एक बहुत बड़ी ताकत है। ऐसे कलाकार कम ही होते हैं जो प्रेक्षक को उसकी अपनी यात्रा पर जाने के अवसर दे पाएं, अतुल उनमें से एक हैं इसमें संदेह नहीं।

बहरहाल, अतुल की इस श्रृंखला को दो दृष्टियों से देखा जाना जरूरी है। एक तो उसके तकनीकी रूप को और दूसरे उसके विषय रूप को। सबसे पहले तकनीक की बात करें। ये चित्र एक ऐसी जगह बनाये गये हैं जहां कलाकारों के लिए हस्त निर्मित कागज तैयार किया जाता है। वहां अतुल ने एक छापा चित्रकार और एक कागज बनाने वाले विशेषज्ञ के साथ मिलकर पहले अपनी आवश्यकता के अनुरूप कागज तैयार किये। उन कागजों में उन्होंने पेपर पल्प ही नहीं, रेडिमेड शर्ट और उसके टुकड़ों को कागज निर्माण की प्रक्रिया के दौरान ही मिलाकर उन्हें कागज का ही एक हिस्सा बना दिया। इसके अलावा रंगों का भी कई जगह इसी तरह प्रयोग किया है। इस श्रृंखला के बहुत से कामों में उन्होंने कागज की धवलता को जस का तस रहने दिया है तो कहीं रंगों से उसे आच्छादित भी कर दिया है। रंग प्रयोग के कारण इन चित्रों में अनेक जगह उनके जलरंग पर असाधारण अधिकार की झलक मिलती है। कहीं रेखांकन किये कागजों को चिपकाया गया था तो कुछ में उन्होंने नकली बालों का भी प्रयोग किया है और कुछ चित्रों में कोलॉज तकनीक का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने पैकेजिंग मटैरियल का भी इस्तेमाल किया है। पहली नजर में देखने पर लगता है जैसे अतुल भी बांबे बॉयज के उस वर्ग में शामिल हो गये हैं जो कला की दुनिया में केवल निरंतर प्रयोगशीलता के लिए ही नहीं,  कुछ कुछ नया और चैंकाने वाला करने के लिए पहचाना जाता है। पर ऐसा नहीं है। अतुल ने प्रयोग जरूर किये हैं परंतु देखें तो एक आदिकथा - सबरी की कथा में उन्होंने आदिम माध्यम कागज का कई रूपों में प्रयोग कर जैसे विषय और माध्यम के बीच एक सूत्र स्थापित किया है। उन्होंने ‘फोर्थ शबरी’ चित्र में नंदलाल बोस की पेंटिंग की ब्लैक एंड व्हाइट डिजिटल छवियों का भी प्रयोग किया है। तकनीक की दृष्टि से यह अतुल डोडिया के पिछले काम से आगे के कहे जा सकते हैं।


नंदलाल बोस ने सबरी के जीवन की तीन अवस्थाओं को चित्रित किया था। अतुल ने उसे और विस्तार दिया है। उनके चित्र ‘स्लीपिंग विद स्टार’ में सबरी निर्वाण की अवस्था में है तो दूसरे चित्रों में वह जीवन के विभिन्न रंगों में दिखाई देती है। कुछ चित्रों में चक्की बनायी है जो अतुल के पहले के काम में भी रही है। रेडिमेड शर्ट का जो उन्होंने प्रयोग किया है वह राम के संदर्भ में है जिसमें कहीं वह धनुषाकार है तो कहीं अपने अंश में प्रभावशाली है। शर्ट में कहीं लाल रंग तो कहीं सुनहरी रंग का प्रयोग राम की विभिन्न अवस्थाओं का परिचय देता है। नंदलाल बोस की सबरी जो संथाल स्त्रियों की आकृति पर आधारित थी, उसे अतुल समकालीनता देते हुए अपने रेखांकन में इरॉटिक बना दिया। एक तरह से उनके यहां सबरी अधिक जीवंत और समकालीन कही जा सकती है। पोट्र्रेट ऑफ रावण में उन्होंने बिना कोई मानवाकृति बनाये केवल तलवार के माध्यम से रावण की उपस्थिति को दिखाया है जो सीता (नकली बाल) और राम (रेडिमेड शर्ट) के बीच व्यवधान की तरह उपस्थित है। नंदलाल बोस ने सबरी के मिथकीय रूप को तरजीह दी थी परंतु अतुल उसे समकालीनता प्रदान करते हैं।

3 comments:

  1. ्बहुत ही सरल शब्दोमे ईत्ना गहन विवेचन आज-कल बहुत कम ही मिलता है, बहुत बहुत धन्यवाद प्रकाशजी ।

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  2. धन्यवाद जितेन्द्रजी।
    दरअसल हम अपनी भाषा, कला और व्यवहार को जटिल बना देते हैं जिसके कारण हमारा जीवन भी उतना ही जटिल हो जाता है। मेरा मानना है कि हमारी भाषा इतनी सहज हो कि वह ऐसे व्यक्ति की भी समझ में आ जाए जो कला के बारे में बहुत जानकारी नहीं रखता हो। दुर्भाग्य से साहित्य में और अन्य क्षेत्रों में विवेचनात्मक लेखन की भाषा ऐसी रही है कि कई बार वह अच्छे-खासे जानकार की भी समझ में नहीं आती। हिन्दी में तो वैसे भी कला लेखन की स्थिति बहुत अच्छी नहीं है और उसमें परिचयात्मकत अधिक रहती है, विवेचना कम। कला पर अंग्रेजी में लिखने वालों की भाषा अक्सर उनकी ही समझ में नहीं आती जिनके बारे में लिखा गया है। मैंने अंग्रेजी में भी ऐसी भाषा में लिखना शुरू किया है जो आसानी से समझ में आए। दुनियाभर में आप देखें तो पाएंगे कि प्रत्येक देश में लोग अंग्रेजी को अपनी भाषा के चरित्र के अनुरूप प्रयोग में लाते हैं। यही नहीं, इंग्लैंड और अमेरिका की अंग्रेजी में भी अंतर है। दुनिया में ऐसे देशों की कमी नहीं है जहां के लोग अंग्रेजी का प्रयोग करने की जगह दुभाषिये का प्रयोग करते हैं। हम भारत के लोग अंग्रेजी को अत्यधिक महत्व देते हैं परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की आधी आबादी केवल हिन्दी समझती और बोलती है। और यह आधी आबादी जिस हिन्दी को बोलती-समझती है वह साहित्य की तरह कठिन नहीं बल्कि सरल होती है इसीलिये हमें भी वैसी ही भाषा का प्रयोग करना चाहिए।

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  3. Thank you so much sir 🙏।। For this article

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